अयोध्या में नकारात्मकता का भी अहसास हुआ, महंतजी उस गली में ले गए जहां कारसेवकों पर गोलियां चलाई गईं: अशोक समर्थ

अयोध्या में नकारात्मकता का भी अहसास हुआ, महंतजी उस गली में ले गए जहां कारसेवकों पर गोलियां चलाई गईं: अशोक समर्थ

फिल्म ‘695’ में रघुनंदन का किरदार निभाने वाले अशोक समर्थ ने कहा- लोग आ-आकर मेरे पांव छूने लगे। स्थिति ऐसी हो गई कि मुझे प्रोटेक्शन लेना पड़ा, फिर वहां जितनी भीड़ थी, वो मेरे चरणों पर आकर गिरने लगी। उन्होंने कहा- अयोध्या में कहीं ना कहीं मुझे वहां नकारात्मकता का भी अहसास हुआ।
आज राम की नगरी अयोध्या में पूरी दुनिया भर के लोग आना चाहते हैं। रामलला के दर्शन के साथ इसे करीब से जानना चाहते हैं, लेकिन ऐक्टर अशोक समर्थ को बीते साल फिल्म ‘695’ की शूटिंग के लिए कई दिनों तक यहां रुकने का सौभाग्य मिला। उन्होंने जन्मभूमि को करीब से जाना। यहां से चारों वेद और तुलसीदास की रामचरित मानस खरीदी। साथ ही, यह भी जाना कि वो कौन सी सड़क थी, जहां पर कारसेवकों पर गोलियां चली थीं। दरअसल, अशोक समर्थ ने फिल्म ‘695’ में रघुनंदन का किरदार निभाया है, जो मूल रूप से महंत परमहंस रामचंद्र दास से प्रेरित है। रामचंद्र दास ने राम मंदिर के लिए अहम योगदान दिया है। अशोक बताते हैं कि जब मैंने रामचंद्रजी वाले गेटअप में माइक लेकर भाषण दिया तो अयोध्या के लोग मुझे असली में महंत समझकर मेरे चरणों पर आकर गिरने लगे थे।

दिगंबर अखाड़ा में परमहंसजी के कई सारे किस्से सुने

अगर फिल्म ‘695’ में रघुनंदन का किरदार मैं नहीं करता तो कोई और करता। मैंने इसलिए इसे जरूरी समझा क्योंकि मेरा किरदार परमहंस रामचंद्र दासजी से प्रेरित था और उनका सनातन धर्म के प्रति बड़ा योगदान रहा है। उनके बारे में पढ़ने के बाद महसूस किया कि हमारे आसपास जो व्यवस्था है, वह चाहे राजनीतिक हो या सामाजिक, उसने हिंदुत्व की व्याख्या अपने मन-मुताबिक बना ली है। हालांकि, हमारे जो संत-महंत हैं, उनमें जात-पात या लाभ नहीं है। परमहंसजी 82 साल की उम्र तक सुप्रीम कोर्ट में राम मंदिर के लिए लड़े। राम मंदिर की नींव खड़ी करने के वे मूल कारक थे। मैंने शूटिंग के दौरान दिगंबर अखाड़ा मठ में बैठकर उनके ढेरों किस्से सुने हैं। मुझे लगा कि इस किरदार को ना कहने की संभावना ही नहीं बनती। यह मुझे चैलेंजिंग लगा तो मैंने तुरंत हां कर दी थी।

चाय नहीं, बस प्रसाद मिलता है यहां

परमहंस जी की बहुत सशक्त विचारधारा थी। वह काजू, फलों की बोरियां पूरी की पूरी खरीद लेते थे और फिर बंदरों को खिला देते थे। राम मंदिर के लिए जो रथ यात्रा थी, उसका खाका परमहंसजी ने अयोध्या से लेकर काशी, मथुरा को ध्यान में रखते हुए बनाया था। बाद में उसको आडवाणीजी, अटलजी, मोदी जी द्वारा देशव्यापी स्वरूप दे दिया गया। मैंने उनके अखाड़े में एक दिग्गज नेता के आने का किस्सा सुना है। दरअसल, वह बहुत सपाट बोलते थे क्योंकि उनका किसी से कोई निजी स्वार्थ नहीं था। एक बार एक बड़े मंत्री उनके अखाड़े में गए थे। उन्होंने पूछा था कि परमहंसजी अखाड़े में आए हैं तो कुछ चाय वगैरह मिलेगी कि नहीं। इस पर जमीन पर बैठे परमहंसजी बोले कि यहां चाय नहीं बस प्रसाद मिलता है और उनको जमीन पर उन्होंने बैठा लिया था।

पूछ लिया था कि नकल करनी या विचारधारा को पकड़ना

मैंने पहले ही डायरेक्टर और राइटर से यह कंफर्म कर लिया था कि मुझे परमहंस रामचंद्र दास की नकल करनी है या सनातन हिंदू धर्म की विचारधारा को बढ़ावा देना है। फिर उन्होंने बताया कि हम उनका नाम नहीं ले रहे, ना हमें उनका एग्रेशन चाहिए। हमें सिर्फ विचारों का आक्रमण करना है। इसके लिए एग्रेशन नहीं चाहिए क्योंकि जो विचार सच्चे हों, उसको इसकी जरूरत नहीं। फिर मुझे रघुनंदन के किरदार को मुलायमियत से जीने का मौका मिला। वह सही भी रहा क्योंकि संत अपनी बात कह रहा है। अगर उसके बीच में हम एग्रेशन लाते तो हमारे संतों की छवि गलत तरीके से बन सकती थी। ये बातें होते ही सबकुछ स्पष्ट हो गया। मुझे डर था क्योंकि मेरा गेटअप, माथे पर चंदन का टीका या बाकी चीजें, सब परमहंस रामचंद्र दास जी जैसी थीं। अयोध्या में सबको पता था कि ऐसा-ऐसा किरदार है, जिसे किया जा रहा। मेरे लिए यह पेचीदा था क्योंकि जैसे मैंने उनका गेटअप धारण किया तो अयोध्या के लोगों को यही अहसास होने लगा कि मैं वही बन गया हूं। मेरी पर्सनैलिटी वैसी ही है, एग्रेशन है पर मैं सौम्य रहता था। शूटिंग के दौरान सड़क पर मैंने डायलॉग बोला- ना हमें जामा मस्जिद चाहिए, ना अजमेर की दरगाह चाहिए, हम तो सिर्फ श्रीराम का जन्मस्थान मांग रहे हैं। फिर वहां जितनी भीड़ थी, वो मेरे चरणों पर आकर गिरने लगी। लोग आ-आकर मेरे पांव छूने लगे। स्थिति ऐसी हो गई कि मुझे प्रोटेक्शन लेना पड़ा। कुछ किरदार हमें देकर जाते हैं। रघुनंदन ने मेरे मन में अंतरनाद पैदा किया है।

अयोध्या से लाया चारों वेद और रामचरित मानस

मैंने अयोध्या में पता किया था कि सही चारों वेद कहां मिलेंगे और मुझे मिल गए। किसी ने एड्रेस दिया तो मैं वहां से तुलसीदासजी की रामचरित मानस भी लेकर आया। वाल्मीकि जी वाली रामायण तो पहले से थी। अनुभव के रूप में रामलला के दर्शन किए। ढांचा गिराने के बाद जो अवशेष पुरातत्व विभाग को मिले थे, उसे देखा। मेरा मानना है कि मैं अयोध्या गया तो वहां के विचार अपने साथ लेकर आया। बीते दिनों चितौड़गढ़ गया तो वहां ऐतिहासिक चीजें देखीं। ऐतिहासिक और पौराणिक स्थानों का अंतरनाद, अंतरभाव जीवित होता है इसीलिए लोग उससे जुड़ने लगते हैं।

‘कहीं ना कहीं मुझे वहां नकारात्मकता का भी अहसास हुआ’

अयोध्या की छवि मेरे दिमाग में कुछ और थी। मैंने बचपन में रामायण पंडितजी से सुनी थी। बाद में धारावाहिक के रूप में अरुण गोविल सर की रामायण देखी थी। फिर लिटरेचर के नाते कॉलेज में पढ़ी। वाल्मीकि रामायण के मुख पृष्ठ पर अयोध्या का एक चित्र हुआ करता था। बस वही छवि मेरे दिमाग में बसी थी। मैंने शूटिंग के लिए अयोध्या पहुंचने पर सबसे पहले सरयू को प्रणाम किया। मेरे दिमाग में जो छवि थी अयोध्या की, उससे वह बिल्कुल अलग था। वैसे भी वह पुराण की बात है। उसके मुख पृष्ठ और आज की अयोध्या में जमीन-आसमान का अंतर आ गया है। हालांकि, कहीं ना कहीं मुझे वहां नकारात्मकता का भी अहसास हुआ। फिर मैंने महंतजी से इस बारे में पूछा। उन्होंने बताया कि जहां पर सदियों से संतों की आहुति दी गई हो, आखिर में ढेरों कारसेवकों पर गोलियां बरसाई गई हों, उसकी नकारात्मकता तो रहेगी। वह मेरा हाथ पकड़कर उस गली में ले गए, जहां कारसेवकों पर गोलियां चलाई गई थीं। मैंने उस गली का वीडियो भी बनाया था। वहां से निकलने के बाद मेरे मन में अजीब सा द्वंद्व शुरू हो गया। मन में सवाल आया कि यह भूमि हमारी, प्रभु राम का जन्मस्थल हमारा, यहीं वे जन्मे। मतलब, प्रभु राम को 14 बरस का वनवास झेलना पड़ा था। उसके पश्चात अपने जन्मस्थल को लेकर भी 500 से अधिक वर्ष अपनी जगह पर आने के लिए उन्हें इंतजार करना पड़ा। फिर बुरा यह लगा ये क्या है।

खुद को पहचान लेने के बाद शुरू होती है तपस्या

आज लोग सिर्फ अपनी ईएमआई भरने के लिए दौड़ रहे हैं। शुरू-शुरू में मैंने भी पीड़ा सही थी। मुझे लगता था कि दुनिया में भगवान ने मेरे ही हिस्से में सारे कष्ट क्यों डाल दिए। फिर हम तड़पते हैं, जीवन से लड़ते हैं। उस उम्र में हमारे विचार परिपक्व नहीं होते। हालांकि, कुछ मुकाम हासिल करने या दुनिया को करीब से देखने के बाद पता चलता है कि ऐसा सबके साथ है। यह विचार सुकून देते हैं लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिए। अगर अड़चन, समस्याएं नहीं आएंगी तो नए अनुभवों से कैसे परिचय होगा। मैं 90 रुपये के चिल्लर लेकर गांव से ऐक्टर बनने भागा था। आज पंचगनी (महाराष्ट्र) जैसे इलाके में मेरा ऑफिस और घर हैं। पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है कि मेरे पास सोने के लिए घर नहीं था। आज चार-चार घर हैं। मतलब, मैं तब कोसता था कि बाप-दादा ने कुछ किया नहीं, लेकिन परिपक्वता के साथ ये चीजें खत्म हो गईं। यह तभी हो पाता है, जब आप खुद को पहचान लें। ये बड़ी जिम्मेदारी है कि मैं क्या कर सकता हूं, मुझे क्या आता है। मुझे जो आता है, मैं वही काम करूं, फिर चाहे परिणाम आज, कल या परसों मिले, लेकिन उसके सिवाए मैं कुछ कर नहीं सकता। ये बात जब स्पष्ट होती तो आपकी तपस्या शुरू होती है।

source: Navbharattimes

Mrityunjay Kumar

Mrityunjay Kumar is a multifaceted innovator — a tech entrepreneur by profession and a storyteller by passion. As Co-Founder and Director of Technology Strategy, he has led transformative initiatives in the startup ecosystem, architecting scalable solutions and aligning technology with long-term business vision. In 2025, Mrityunjay made his literary debut with Pagalpanthy – If You Had Loved Someone, a soul-stirring coming-of-age novel that explores the fragile beauty of young love, emotional vulnerability, and the chaos of unspoken feelings. Inspired by a true story shared with him nearly a decade ago, the novel traces the journey of Mrinal and Soumya across Kota, Bhubaneswar, and Dubai — blending themes of mentorship, heartbreak, and healing. A computer engineer by education and a dreamer by choice, Mrityunjay’s work — both in tech and fiction — reflects his deep empathy for human experiences that technology often overlooks. His writing is conversational, raw, and authentic, resonating with readers who’ve loved in silence or lost without closure. When he’s not building tech or writing stories, he enjoys long walks, nostalgic music, and connecting with readers who find pieces of themselves in his pages.

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